लखनऊ। भारत का संविधान सामाजिक न्याय की भावना से ओतप्रोत है। इसका उद्देश्य हर व्यक्ति को समान अधिकार और न्याय दिलाना है, चाहे वह गरीब हो, दलित हो, महिला हो या पिछड़े वर्ग से आता हो। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि आज भी करोड़ों लोग न्याय से वंचित हैं — सिर्फ इसलिए क्योंकि उनके पास न जानकारी है, न संसाधन, और न ही कोई मार्गदर्शन।
संविधान देता है न्याय का भरोसा
अनुच्छेद 14, 21 और 39-A जैसे प्रावधान स्पष्ट रूप से बताते हैं कि हर व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता, जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार है, और आर्थिक अक्षमता के कारण किसी को भी न्याय से वंचित नहीं किया जा सकता। खासकर अनुच्छेद 39-A में मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था की गई है।
न्यायपालिका के ऐतिहासिक फैसले
भारतीय न्यायपालिका ने भी समय-समय पर गरीबों और वंचितों के पक्ष में अहम फैसले दिए हैं।
- हुसैनारा खातून मामला (1979) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "त्वरित न्याय" देना राज्य का कर्तव्य है।
- खत्री बनाम बिहार (1981) में कहा गया कि गरीब को वकील न मिलना, न्याय का अपमान है।
- दिल्ली घरेलू महिला श्रमिक मंच मामला (1995) में पीड़ित महिलाओं को कानूनी, आर्थिक और मानसिक सहायता देने का आदेश दिया गया।
- मनुभाई वाशी बनाम महाराष्ट्र (1996) में कोर्ट ने गरीबों के लिए विधिक शिक्षा और सहायता को जरूरी बताया।
लेकिन आज भी न्याय से क्यों दूर हैं गरीब?
- मुफ्त कानूनी सहायता की जानकारी का अभाव
- जिला विधिक सेवा प्राधिकरण (DLSA) की निष्क्रियता
- वकीलों की भारी फीस और कमी
- मुकदमों की लंबी प्रक्रिया और खर्च
समाधान की राह क्या हो?
- मुफ्त कानूनी सेवाओं को सक्रिय और जवाबदेह बनाया जाए
- गांव-गांव में ‘कानूनी शिविर’ और ‘मोबाइल कोर्ट’ लगाए जाएं
- हर पंचायत में ‘कानूनी सलाह केंद्र’ खोले जाएं
- ई-कोर्ट और वीडियो सुनवाई को गांव तक पहुँचाया जाए
लोकतंत्र तभी पूर्ण होगा जब न्याय अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे
जब तक न्याय की किरण समाज के सबसे वंचित व्यक्ति तक नहीं पहुंचेगी, तब तक लोकतंत्र अधूरा रहेगा। न्याय सिर्फ अदालत का फैसला नहीं, बल्कि यह संविधान का वादा है — जिसे निभाना सरकार, न्यायपालिका और समाज तीनों की साझा जिम्मेदारी है।
