लखनऊ। इतिहास ने जब किसी कालखंड को काला अध्याय के रूप में स्वीकार कर लिया हो, तब उस कालखंड में लिए गए निर्णयों को वैधानिक कैसे माना जा सकता है। आपातकाल स्वाधीन भारत की तवारीख का काला दौर ही है। उसी दौर में संवैधानिक संशोधन के जरिए संविधान की प्रस्तावना में 'सेक्युलर' और 'समाजवादी' शब्द जोड़े गए। ऐसे में इन शब्दों को हटाने की मांग पर विमर्श होना चाहिए, लेकिन हो रहा है विवाद। इसकी वजह यह है कि यह मांग खुलेतौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने की है। संघ की ऐसी आवाजें गैर बीजेपी दलों को अक्सर चुभती रही हैं। काग्रेस ने इस बहाने संघ पर अपना पुराना आरोप दोहराना शुरू कर दिया, कि संघ और बीजेपी संविधान को बदलने की कोशिश में हैं। दिलचस्प यह है कि आपातकाल में कांग्रेसी अत्याचारों के शिकार हुए समाजवादी धड़े के दल भी संघ विरोध में कांग्रेस के साथ खड़े नजर आ रहे हैं। सबसे पहले हमें जानना चाहिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने इस बारे में क्या कहा है। आपातकाल की पचासवीं बरसी पर दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा, 'आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द जोड़े गए। ये शब्द पहले नहीं थे। बाद में इन्हें निकालने की कोशिश नहीं हुई। ये शब्द संविधान में रहना चाहिए। इस पर विचार होना चाहिए। जब से भारतीय जनता पार्टी केंद्रीय सत्ता में आई है, तभी से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी एक रट लगाए हुए हैं कि बीजेपी और संघ संविधान बदलना चाहते हैं। लोकसभा चुनाव के दौरान तो उनकी अगुआई में समूचे विपक्ष ने इसे बार-बार दोहराया। नई लोकसभा के गठन के दौरान विपक्षी सांसदों ने शपथ लेते वक्त अपने हाथ में संविधान की प्रति थामे रखी। अंतर बस यह रहा कि कांग्रेसी सांसदों के हाथ में लाल रंग के कवर वाली संविधान की प्रति रही तो दूसरे दलों के सांसदों के हाथों में नीले रंग के कवर वाली संविधान की प्रति रही। शपथ लेते वक्त भी विपक्षी सांसदों ने देश को संदेश देने की कोशिश की कि बीजेपी संविधान बदलना चाहती है और वे इसे बदलने नहीं देंगे। दत्तात्रेय होसबाले के बयान के बाद एक बार भी कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल ऐसी ही बयानबाजी में मसरूफ हो गए हैं। संविधान की प्रस्तावना में ये दोनों शब्द 42वें संशोधन के जरिए जोड़े गए थे। इसी के साथ लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल पांच की बजाय छह साल कर दिया गया था। 1977 के आम चुनावों के बाद सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार ने दिसंबर 1978 में संविधान के 44वें संशोधन के जरिए आपातकाल के दौरान किए गए संवैधानिक बदलावों को बदल दिया। जिसमें लोकसभा और विधानसभाओं का कार्यकाल को फिर से पांच साल करना शामिल था। लेकिन संविधान की प्रस्तावना से 'सेक्युलर' और 'समाजवादी' शब्दों को हटाने का प्रयास नहीं हुआ। संघ की मांग का आधार मूल संविधान की प्रस्तावना है। जिसमें ये दोनों शब्द शामिल नहीं किए गए थे। ऐसा नहीं कि ऐसा करने की मांग नहीं हुई थी। संविधान सभा के सदस्य केटी शाह ने 15 नवंबर 1948 को संविधान के मसौदे में संशोधन प्रस्ताव रखते हुए भारत को 'धर्मनिरपेक्ष, संघीय, समाजवादी राज्यों का संघ' बनाने माँग की। लेकिन अंबेडकर ने इसे खारिज कर दिया। तब अंबेडकर ने कहा था, लराज्य की नीति क्या होनी चाहिए, समाज को उसके सामाजिक और आर्थिक पक्ष में कैसे संगठित किया जाना चाहिए, ये ऐसे मामले हैं जिनका निर्णय लोगों को समय और परिस्थिति के अनुसार स्वयं करना चाहिए।ङ्क अंबेडकर का मानना था कि अगर संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद को जोड़ दिया जाता है तो यह भावी पीढ़ियों को उनका रास्ता चुनने की स्वतंत्रता को सीमित करेगा। उन्होंने कहा, ल्लइसे संविधान में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि यह लोकतंत्र को पूरी तरह से नष्ट कर देगा। नेहरू की भी सोच थी कि भारतीय संविधान का चरित्र ही धर्मनिरपेक्ष है, इसलिए उसकी प्रस्तावना में इसे अलग से जोड़ने की जरूरत नहीं है। कांग्रेस हो या फिर दूसरे विपक्षी दल, उन्हें आज के दौर में जब भी बीजेपी पर हमला या फिर संघ को कठघरे में खड़ा करना होता है, वे अंबेडकर के संविधान को याद करने लगते हैं। अंबेडकर के मूल्यों की रक्षा की बात करने लगते हैं। ऐसे में उनके सामने यह सवाल जरूर उठता है कि क्या आपातकाल थोपा जाना अंबेडकर के विचारों का सम्मान था और अगर वह नहीं था तो फिर सेकुलर और समाजवादी शब्दों का प्रस्तावना में शामिल होना सही कैसे है? एक और सवाल यह है कि जब आपातकाल ही नाजायज और अवैधानिक था तो फिर उस दौरान उठाए गए किसी कदम को जायज और संवैधानिक कैसे स्वीकार किया जा सकता है? सवाल यह भी है कि आपातकाल के दौरान इंदिरा ही कार्यपालिका हो गई थीं, जिनके सामने न्यायपालिका और विधायिका एक तरह से अधिकारहीन हो चुकी थीं, तो उनके द्वारा लिए गए निर्णय सही कैसे हो सकते हैं? संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए इन शब्दों की एक सीमा यह भी है कि इनकी कोई व्याख्या नहीं है। इसलिए जिसकी जैसी सोच होती है, इनकी व्याख्या कर डालता है। केशवानंद भारती केस में सर्वोच्च न्यायालय कह सकता है कि संविधान की बुनियादी आत्मा को नहीं बदला जा सकता। इस नजरिए से भी देखें तो प्रस्तावना में जोड़े गए ये दोनों ही शब्द सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के ठीक उलट हैं। इन दोनों शब्दों के जोड़े जाने के बाद ही संविधान का अलग ही रूप और चरित्र दिखने लगा है। जिसके आधार पर ज्यादातर कार्यपालिका और विधायिका फैसले लेने लगी है। कुछ जानकार तो मानते हैं कि कई सामाजिक समस्याओं की वजह ये दोनों शब्द ही हैं।
